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अत्याचारी बना उदारबादी राजा | Let's have a story of Kashi
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अपने सभी शिष्यों के लिए वेदधर्मा के मन में स्नेह भाव रहता था । वह लगन से सबको शिक्षा - दीक्षा देते थे । उनके आश्रम का वातावरण एक बड़े परिवार जैसा था और गुरु वेदधर्मा उस विशाल परिवार के मुखिया थे । सब शिष्यों में दीपक वेदधर्मा की अधिक सेवा करता था । शिक्षा में भी वह सबसे आगे रहता था । इस कारण वेदधर्मा उस पर विशेष स्नेह रखते थे ।
एक दिन वेदधर्मा ने दीपक को बुलाया , वह तुरन्त आया । उसने हाथ जोड़कर कहा- " क्या आज्ञा है गुरुदेव ? " वेदधर्मा ने एक बार इधर - उधर देखा , फिर बोले- " मेरे साथ नदी तट पर चलो । एकान्त में तुमसे एक विशेष बात कहनी है । " दीपक ने गुरु वेदधर्मा की ओर देखा । मन में आशंका ने सिर उठाया । सोचने लगा - ' ऐसी क्या विशेष बात है जिसे गुरुदेव एकान्त में कहना चाहते हैं । ' दीपक गुरुजी के पीछे - पीछे नदी तट पर जा पहुँचा ।
आसपास कोई नहीं था । वेदधर्मा ने कहा- " जो बात में तुमसे कहने जा रहा हूँ ,उसे कोई नहीं जानता और मैं तुम्हारे अतिरिक्त किसी दूसरे से कहूँगा भी नहीं । ध्यान से सुनो । मैं पूर्व जन्मों के अनेक पायों का प्रायश्चित इस जन्म में कर चुका हूँ । केवल दो का प्रायश्चित करना शेष है । मैं इसके लिए वाराणसी जाना चाहता हूँ , क्योंकि वह महापावन है । वहाँ पाप नष्ट होते हैं , पुण्य बढ़ता है
दीपक ध्यान से अपने गुरु की बात सुन रहा था उन्होंने आगे कहा- " मैं पूर्व जन्मों के पापों के लिए प्रायश्चित करूंगा । उससे पहले मेरे शरीर में अनेक विकार पैदा हो जायेंगे । शरीर गलने लगेगा , नेत्रों की ज्योति जाती रहेगी । उस कारण मेरे स्वभाव में भी परिवर्तन आ जाएगा । हो सकता है , मैं ऐसा व्यवहार करने लगू , जिसकी आज तुम कल्पना भी न कर सको । क्या उस स्थिति में भी तुम मेरी देखभाल कर सकोगे ? " दीपक गुरु - भक्त था ।
उसने तुरन्त उत्तर दिया- " गुरुदेव , मैं नहीं जानता , पूर्व जन्म जन्म में आपने क्या किया था । इस जन्म में आप मेरे परम आदरणीय गुरुदेव हैं । मैं आपके लिए सब कुछ कर सकता पर यह प्रायश्चित आप मुझे करने दीजिए । " शिष्य की गुरु - भक्ति देखर , वेदधर्मा प्रसन्न हुए । मुसकराते हुए बोले- " वत्स , पाप जिसने किये हों , प्रायश्चित भी उसी को करना होगा , तभी पापों से मुक्ति मिलेगी । जैसा मैं कहता हूँ , वैसा करने का वचन दो तो मैं निश्चिन्त हो जाऊँ ।
गुरु - सेवा दीपक को प्रिय थी । उसने कहा- " गुरुजी , आप जरा भी चिंता न करें । चाहे जैसी भी परिस्थिति आए , मैं आपकी सेवा से मुँह नहीं मोहूँगा , वचन देता हूँ । " गुरु वेदधर्मा ने और किसी से कुछ न कहा । आश्रम का भार कुछ शिष्यों पर छोड़कर वह काशी के लिए चल दिये । दीपक तो छाया की तरह उनके साथ था ही । काशी में वेदधर्मा मणिकर्णिका के निकट ठहर गए ।
उन्होंने बाबा विश्वनाथ और माता अन्नपूर्णा की पूजा करने के बाद पूर्व जन्म के पापों का आवाहन किया । पूर्व जन्म के पापों के प्रभाव से तन - मन में जाए । ' इकन्ना नै गिल्पेशा पर एक फूल फेंका 1 फूल अंगारों में बदल गया । गिलमेशा जलने लगा । वह चिल्लाने लगा- " मुझे बचाओ । मेरा शरीर जल रहा है । मैं किसी को नहीं सताऊँगा । वचन देता हूँ ।
इकन्ना दयालु थी । उसने गिल्मेशा घर दूसरा फूल फेंका तो बारिश होने लगी । आग बुझ गई । गिल्मेशा की पीड़ा शांत हो गई । इतना पानी बरसा कि गिल्मेशा ठण्ड से थर - थर काँपने लगा । इकन्ना ने , तीसरा फूल फेंका , तो गिल्मेशा का कांपना बन्द हो गया । ठण्ड जाती रही ।
दूर खड़े लोग गिल्मेशा को ध्यान से देख रहे थे । इकन्ना के चौथे से गिल्मेशा के सामने शहद की प्यालियाँ प्रकट हो गई । उसने शहद पिया , तो उसको भूख - प्यास मिट गई । वह रोने लगा । “ राजा , तुम रो क्यों रहे हो तुम हो तलवार से भी नहीं डरा करते हो फिर भी फूल पत्तिओ से क्यों घबरा जाते हो एक आदमी ने पूछा । “ इकन्ना देवी ने मुझे तलवार से नहीं , अपनी करुणा से वश में कर लिया है ।
मैं अपने किए पर शर्मिन्दा हूँ । मैंने जनता को बहुत कष्ट पहुँचाया है । " उस दिन से गिलमेशा बिल्कुल ही बदल गया । लोग उसके अत्याचारों को भूल गए क्योंकि अब वह एक न्यायप्रिय और उदार राजा बन गया था । गिल्येशा में आए इस परिवर्तन को देख , देवी इकन्ना ने उस पर पांचवाँ फूल फेंका । जैसे ही फूल ने गिलमेशा को स्पर्श किया , वह मनुष्य से देवता में बदल गया । फूलों के रथ पर बैठाकर इकन्ना उसे आकाश में ले गई । कहते हैं , जब वसंत आता है तो इकन्ना और गिल्मेशा धरातल पर आ जाते हैं और फूल पत्तिया खिलते रहते हैं ।
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